बाल खंड
400,000 ईपू

पूर्वइतिहास से
आद्य इतिहास तक

सभ्यता का उदय : पत्थर का पहला औज़ार, बिहार में प्रारंभिक पाषाण कला, चिरांद में खेती-बाड़ी; तांबे की खोज तथा सिंधु नगरों का जन्म। आर्यों का आगमन होता है। वैदिक ऋचाओं की रचना होती है।
    600 ईपू

    महाजनपदो का अभ्युदय

    16 महाजनपदों में, मगध परम उभार होता है। राजगृह राजनधानी बनता है। पहली बार सिक्के डाले जाते हैं। महावीर का जन्म होता है। बुद्ध को निर्वाण मिलता है। अजातशत्रु के पाटलिग्राम क़िले से पाटलिपुत्र का भविष्य शुरू होता है।
      362 ईपू

      नंद शासक – युद्ध और शांति

      नंद मगध विजय करते हैं शक्तिशाली सेना का गठन करते हैं और प्रारंभिक साम्राज्य की शुरुआत करते हैं। कृषि तथा सिंचाई समुन्नत होती हैं। यूनानी विजेता सिंकंदर पंजाब तक पहुंचता है। उसकी थकी हुई सेना आगे बढ़ने से इन्कार कर देती है।
        323 ईपू

        मौर्य – पहला साम्राज्य

        चंद्रगुप्त मौर्य अपने मुख्य सलाहकार और अर्थशास्त्र के लेखक चाण्क्य की सहायता से नंदों के शासन को उखाड़ फेंकता है। अशोक भारत के सबसे बड़े साम्राज्य की स्थापना करता है। कलिंगयुद्ध की हिंसा उसे बौद्धधर्म की तरफ़ मोड़ देती है। वह धम्मशिलालेख उत्कीर्ण करवाता है ।
          185 ईपू

          शुंग – दृश्य कला और स्थापत्य कला में नई प्रवृत्तियां

          शुंग मगध पर कब्ज़ा करते हैं। बौद्धधर्म का व्यापक विस्तार होता है। बोधगया के महाबोधि मंदिर की रेलिंग पर कहानियां खुदवायी जाती हैं। बौद्ध कला में पैरों के निशान और खाली सिंहासन के रूप में प्रतीकों के माध्यम से बुद्ध को दर्शाया जाता है।
            50 ई

            कुषाण –अनेक संस्कृतियों का संगम

            कुषाण साम्राज्य गंगा के मैदान से लेकर अफ़गा़निस्तान तक फैला हुआ है। गंधार और मथुरा प्रमुख कला-केन्द्र बन जाते हैं। बुद्ध मनुष्य के रूप में दर्शाये गए हैं। रेशम मार्ग व्यापार से संस्कृति को विस्तार मिलता है। बौद्धधर्म पूर्व तक पहुंचता है।
              320 ई

              गुप्त – रचनात्मकता तथा समृद्धि का युग

              लिच्छवी के साथ गठबंधन करके चंद्रगुप्त अपने साम्राज्य की ताक़त बढ़ाता है। गुप्तों के राजीनतिक प्रभाव का विस्तार होता है। फ़ाहियान का भारत आगमन होता है। नालंदा तथा आर्यभट्ट एवं कालिदास के कार्यों से कला, संस्कृति और ज्ञान-विज्ञान अपनी अद्भुत ऊंचाई पर पहुंचते है।
                606 ई

                वर्धन – एक अस्थायी दौर

                गुप्त राजा शशांक मगध पर शासन करता है। उसकी मृत्यु के बाद राजा हर्षवर्धन का शासन पर नियंत्रण होता है। वह कला का एक महान संरक्षक है। व्हेन-सांग नालंदा और बोध गया की यात्रा करके अहम विवरण अभिलिखित देता है।
                  755 ई

                  पाल – बौद्धिक विनिमय का चरमकाल

                  पाल राजवंश बिहार और बंगाल पर शासन करता है। विक्रमशीला और ओदंतपुरी विश्वविद्यालय की स्थापना होती है। कुर्तिहार धातुकला का केन्द्र बन जाता है। वाजरायन के रूप में बौद्धधर्म के अन्य तांत्रिक रूप का विकास होता है।
                    1206 ई

                    सल्तनत – दिल्ली शक्ति का नया केन्द्र बनी

                    दिल्ली सल्तनत की स्थापना से भारत में मुसलमानों के शासन की शुरुआत होती है; दिल्ली और बंगाल से सिलसिलेवार कई शासकों का बिहार पर शासन होता है। भक्ति और सूफ़ी आंदोलन रफ़्तार पकड़ते हैं। 1526 में, बाबर मुग़ल साम्राज्य की स्थापित करता है।
                      1540ई

                      शेर शाह सूरी – अफ़ग़ान अंतराल

                      अफ़ग़ान शासक शेर शाह सूरी मुग़ल शासक हुमायू को हराकर भारत का शासक बनता है। उसकी उपलब्धियों में सड़क-ए-आज़म, आज के ग्रैंड ट्रंक रोड रूट का निर्माण शामिल है। वह चांदी का रुपये जारी करता है।
                        1556 ई

                        मुग़ल – मुग़ल शासन का सुदृढ़ीकरण

                        अकबर भारत का बादशाह बनता है। अबुल फ़ज़ल अपनी किताब, ‘आइन-ए-अकबरी’ में बिहार को मुग़ल शासन के अंतर्गत एक महत्वपूर्ण प्रांत बताता है। अंग्रेज़ पटना में सूतीवस्त्र का कारखाना खोलते हैं। गुरु गोबिन्द सिंह का पटना में जन्म होता है।
                          1717 ई

                          बंगाल के नवाब और अंग्रेज़ों का सत्तारोहण

                          1757 के पलासी युद्ध और 1764 के बक्सर युद्ध में जीत हासिल कर ब्रिटिश इस्ट इंडिया कंपनी बिहार, बंगाल और ओड़िशा पर नियंत्रण स्थापित करती है। पटना एक अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक केन्द्र बन जाता है। गोलघर अनाजभंडार का निर्माण होता है।
                            1858 ई

                            अंग्रेज़ी राज – पुरातात्विक खोज

                            ब्रिटिश राज सत्ता का कार्यभार संभाल लेता है। प्रिंसप प्राचीन लिपि को व्याख्या करता है। कनिंघम नालंदा और बोधगया में खुदाई कराना शुरू करता है। 1912 में कुम्हार में मौर्यों द्वारा निर्मित सभागार की खोज होती है। 1936 में बिहार प्रांत का सृजन होता है।
                              1947 ई

                              स्वाधीन भारत

                              बिहार के डॉ. राजेन्द्र प्रसाद 1950 में गणतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति बनते हैं।

                                भव्य दीदारगंज यक्षी

                                इतिहास में खोज और अन्वेषण संयोगों से भरपूर हैं तथा प्रसिद्ध चौरी वाहक मूर्ति निश्चित रूप से ऐसे भाग्यशालियों में से एक है। एक फ़ीट साढ़े सात इंच की चौकी पर बैठी चुनार के बलुआ पत्थरों से बनी पांच फ़ीट दो इंच लंबी यह मूर्ति दर्पण की तरह अविश्वसनीय रूप से चमकदार है। इसकी खोज उसी वर्ष यानी 1917 ई. में हुई जिस वर्ष पटना संग्रहालय की स्थापना हुई। यह मूर्ति कैसे मिली, इस पर अलग अलग मत है। पटना संग्रहालय प्रकाशन इस बात पर प्रकाश डालता है कि पटना के तत्कालीन कमिश्नर माननीय ई.एच.एस. वाल्स के पत्र में ग़ुलाम रसूल नाम के एक व्यक्ति को इसकी खोज का श्रेय दिया गया है, जिसने दीदारगंज के नज़दीक नदी तट पर फ़ैले कीचड़ में चिपके हुए इस मूर्ति को देखा। रसूल ने तब उस मूर्ति को निकालने के लिए उस स्थान को खोदना शुरू किया।

                                मगर, हममें से ज़्यादातर लोग अलग तरह से ज़्यादा रोमांचित करने वाली कहानी में विश्वास करना चाहेंगे, जिस कहानी के बारे में आम तौर पर अधिकतर बातें की जाती है तथा इसका संबंध पुलिस निरीक्षक द्वारा 20 अक्टूबर 1917 को दर्ज की गई गुप्त रिपोर्ट से जोड़ा जाता है। यह कहानी कुछ इस तरह है कि पुराने पटना शहर के दीदारगंज में गंगा के किनारे, एक धोबी धरती से चिपके हुए एक पत्थर के टुकड़े पर कपड़े धो रहा था। एक दिन, उसके नजदीक ही एक सांप घूम रहा था, ग्रामीणों ने उसका पीछा किया, वह सांप धोबी के पत्थर के स्लैब के नीचे की छेद में छुप गया। जब ग्रामीणों ने उसे निकालने के लिए मिट्टी को खोदना शुरू किया, तो उन्होंने पाया कि जिस स्लैब के नीचे वो खुदाई कर रहे थे, वह असल में किसी शानदार मूर्ति का भाग था, और इसी मूर्ति को हम आज दीदारगंज यक्षी कहते हैं। यह कहानी व्यंजनापूर्ण है, जो हमें इतिहास की प्रकृति की ही याद दिलाती है कि किस तरह हम लापरवाही से इसके कुछ भाग, जो दृश्य है, का इस्तेमाल करते हैं, सही मायने में ऐसा बाक़ी बातों को जाने बिना ही किया जाता है, जो छुपी हुई है। यह पूरी तरह संयोग ही है कि यक्षी की मूर्ति उसी साल अपनी मौजूदगी दर्ज कराती है, जिस वर्ष पटना संग्रहालय अस्तित्व में आता है। अबतक यह मूर्ति पटना संग्रहालय की सबसे आकर्षक मूर्ति है। बिहार संग्रहालय की ऐतिहासिक कला दीर्घा के दूसरे तल पर इस सबसे प्रतिष्ठित कलाकृति को दिखायेगा।

                                यक्षी प्राचीन भारत के स्त्री सौंदर्य वाले आदर्श मानकों का प्रतीक गढ़ती है। उसकी आकृति पूर्ण वक्षप्रतिमा, पतली कमर तथा व्यापक नितंब के साथ कामुक है। *ग्रीवा त्रिवाली-कमर पर मांशलता के बलन के रूप में सुंदरता की अधिक असामान्य लेकिन निर्धारित मानदंड के रूप में शामिल है। शायद, इस मूर्ति के बारे में जो सबसे अनोखी बात है, एक स्पष्ट रूप से आकर्षक विशेषताएं समाहित कर लिये जाने के बाद, वह है-एक सुंदर तरीक़े से उसकी बेहतरीन अभिव्यक्ति, जिसकी भाव-भंगिमा हमें मोह लेती है। यक्षी विनम्रता की मांग करती हुई सीधे खड़े होने के बजाय आगे की ओर थोड़ी झुकी हुई है। उसके होंठों की मुस्कान पकड़ में नहीं आने वाली, फिर भी हमेशा यादों में क़ायम रहने वाली बेहद प्यारी मुस्कुराहट है। उसके दाहिने पैर का डिजाइन थोड़ा झुका हुआ है, मानो ऐसा उसके हाथ से पकड़ी गई हल्की सी कूची तथा चौरी पर उसकी पकड़ की दृढ़ता के कारण हो, जो उसकी सूक्ष्मता में अभिव्यक्ति की विनम्रता को दिखाता है। यह एक गोल आकृति वाली मूर्ति है, जिसका मतलब है कि इसे किसी भी कोण से देखा-निहारा जा सकता है।

                                इसकी खोज के बाद, इतिहासकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती इसकी तिथि के निर्धारण को लेकर थी। इसकी कलाकृति, इस्तेमाल किये गए पत्थर, शिल्प शैली को लेकर इसे किस युग में रखा जाए? पोलिश की उच्च चमक और यक्षी के अलौकिक गुणों से, भरहुत में पाये जाने वाले बौद्ध स्तूप की रेलिंग समतुल्य इस मूर्ति के बारे में आर.पी.चंद्रा का निष्कर्ष है कि यह अशोककालीन कला शाखा के विदेशी उस्तादों में से मगध कलाकारों द्वारा शास्त्रीय सीख के परिणाम को दर्शाती है। जे.एन. बनर्जी मौर्यकाल के रूप में चमक के साथ इस प्रकार की गोल आकृति वाली सभी मूर्तियों को वर्गीकृत करते हैं तथा इसे पहली सदी के आस-पास या इससे पहले की ठहराते हैं। निहार रंजन रे इसे यक्षिणी कहना पसंद करते हैं, क्योंकि वो ऐसा मानते हैं कि इसकी शैली दूसरी शताब्दी के पहले की मथुरा यक्षियों से संबंधित हो सकती है। यद्यपि, इसका शाही आचरण मौर्य कालीन एक ही पत्थर से बनी आकृतियों से मिलता जुलता है। इस तरह मतों के विस्तार क्षेत्र को देखते हुए कहा जा सकता है कि यह मूर्ति शायद मौर्यकाल के आस-पास की है।

                                वर्षों तक धरती में दफ़्न होने के कारण इसे नुकसान भी पहुंचा। बायीं बांह नहीं है तथा यक्षी की नाक खपची है। इस टूट-फूट के बावजूद लंबे समय के गुज़र जाने के बाद भी यह मूर्ति रोमांच और जादू पैदा करती है तथा यह मूर्ति इस बात की आकर्षक उदाहरण है कि हज़ारों साल पहले बिहार की शिल्पकला कितनी उन्नत थी। बिहार संग्रहालय में आयें और इसके वैभव को देखें, जो आजकल इसका स्थायी घर है !

                                *जयप्रकाश नारायण सिंह तथा अरविन्द महाजन द्वारा लिखित पुस्तक द दीदारगंज चौरी बीयरर फ़ीमेल फ़ीगर। पटना संग्रहालय प्रकाशन – 2012

                                 

                                समय

                                सभी दिन :10:30am - 5pm
                                सोमवार बंद।

                                सभी छुट्टियों देखें

                                संपर्क

                                +91 0612 2235732

                                info@biharmuseum.org

                                स्थान

                                जवाहरलाल नेहरू मार्ग (बेली रोड),
                                पटना, बिहार, 800 001

                                नक्शा देखें

                                • Facebook
                                • Twitter
                                • Instagram
                                • Pintrest
                                बाल खंड