पीपल क्यों बुद्धिशाली है
2500 साल से भी ज़्यादा पहले, नेपाल में स्थित लुंबिनी के बगीचे में माया नाम की रानी ने एक बच्चे को जन्म दिया। राज शुद्धोद्धन और रानी माया ने उस बच्चे का नाम सिद्धार्थ रखा। भविष्यवाणी की गई कि बालक या तो बहुत बड़ा सम्राट बनेगा या फिर बहुत महान संत होगा। इस भय से कि बालक कहीं संन्यास की तरफ़ न मुड़ जाए, राजा शुद्धोद्धन ने उस बच्चे को जीवन की सभी क्रूर सच्चाइयों से अलग रखा। लेकिन सिद्धार्थ जब बड़ा हुआ, तो वह बेहद जिज्ञासु बन गया। उसने सोचा कि सब कुछ सिर्फ़ सुंदर ही सुंदर नहीं हो सकता। इसलिए वह एक दिन महल के दरवाज़े पर आ गया और उसने वास्तविक दुनिया को भरपूर नज़रों से देखा। उसने ग़रीबी देखी, बीमारी देखी, बुढ़ापा और मृत्यु देखी। इन सबसे वह परेशान हो गया और उसी समय उसने फ़ैसला किया कि वह इस विशाल दुनिया को अपनी नज़रों से देखेगा और जानेगा कि जीवन में और क्या-क्या है। अपनी पत्नी, बच्चे और राज-पाट को छोड़कर, वह उस रास्ते पर चल पड़ा, जिसे आज हम बिहार के रूप में जानते हैं। वह यहां ऐसा खींचा चला आया जैसे लोहा चुंबक की तरफ़ खींचा चला आया है, मानों पहले से पता हो कि इसी जगह पर उसे अपने प्रश्नों के उत्तर मिलेंगे।
सिद्धार्थ ख़ासकर इस सवाल से परेशान था, कि ‘दुख क्या है’? अपनी इस खोज में कि प्रत्येक मानव के जीवन का उद्देश्य क्या है, उसे कई परीक्षणों से गुज़रना पड़ा। इस हद तक उसने अपने आप को भूखा रखा कि वह सिर्फ़ चमड़ी और हड्डियों का ढांचा भर रह गया। सुजाता नाम की एक ग्रामीण युवती समय रहते उसके सामने आयी और उसने दूध चावल से भरी एक कटोरी भेंट की तथा इसी से वह जीवित रह पाया। तभी सिद्धार्थ ने यह महसूस किया कि अतिवाद को अपनाना किसी समस्या का समाधान नहीं है।
वह कई दिनों तक बोधगया में एक पीपल के पेड़ के नीचे शांतिपूर्वक ध्यान लगाकर बैठा रहा, अचानक ज्ञान का प्रकाश चमका और सत्य सिद्धार्थ के सामने प्रकट हुआ। इसके बाद वह जान सका कि भौतिक असंतुष्टि, जिसे हम सभी महसूस करते हैं, उससे कैसे पार पाया जाए। अपनी ज्ञानप्राप्ति के सात दिनों बाद तक भी वह ध्यान लगाता रहा और फिर उसने ‘चत्वारी आर्य सत्यानी’(चार शास्वत सत्य) को सूत्रबद्ध किया। इस सिद्धांत को उन्होंने उपदेश के रूप में देना शुरू किया, जिसे वस्तुत: मध्यमार्ग, अष्टांगिक मार्ग (दुख से छुटकारा पाने के आठ मार्ग), कहा जाता है और इन उपदेशों ने जीवन का अर्थपूर्ण रास्ता दिखाया।
संस्कृत में बोधि का मतलब ज्ञान से प्रकाशित होना है और इसी भाव से मंडित एक राजकुमार जो बोधशाली हो गया, भगवान बुद्ध कहलाने लगा। बुद्ध को पीपल के वृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई, परिणामस्वरूप बोधगया का यह पीपल का पेड़ बोधिवृक्ष कहलाने लगा और फिर सब जगह इसे बुद्धि के पेड़ की तरह पसंद किया जाने लगा।
बाल दीर्घा के वन्यजीव अभयारण्य में पीपल के पेड़ को देखें! बिहार संग्रहालय में बुद्ध और उनके जीवन की शिक्षा के क़रीब आयें !